” जीवन की ज्वाला”
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“धुआँती शाम में
सड़क के किनारे
उगे हुए कुकुरमुत्ते की तरह
उगी झोपड़ियां
और उन झोपड़ियों में
गरमाती राजनीति
मुस्कुराता हसीन ख्वाब
और लहराता यथार्थ
सब कुछ कह जाता है
नहीं कहता तो बस
दो वक्त की रोटी और
पूरे तन के ढंके कपड़े
सुगन्धित तेल और साबुन
और सँग गमकता बचपन
नहीं कहता अब वह
कराहती टूटी खाट
और तड़पता जीवन
नहीं कहता अब वह
उजड़ी माँग की रेखा
नहीं आता उसे अब रुलाई
माँगता नहीं वह कोई
दूध और मलाई
मांगता है बस अब
रोटी सँग प्याज
और थोड़ी-सी रुलाई।
नहीं माँगता वह अब
ठिठुरती रजाई
नहीं चाहता अब
मुर्गे की टांग
नहीं चाहिए उसे
अंग्रेजी या देशी
नही चाहिए अब
यारों की महफ़िल
नहीं चाहिए अब
शिरनियों का सँग
नहीं चाहिए अब
खनकती चूड़ी
चुरा ले गयी जो
जीवन थी रीति
नहीं मिलेगी खाँसती अब माई
चाहे चली जाए
जीवन की कमाई
न करा पाए
बहन की विदाई
हो न सकी चाहे
माँ की दवाई
बीबी भी रुठ चली
मायके की दुआरी
मीत सब रीत गए
पलानी की बिनाई
साथ दिया तो बस
कुल्हड़ की देशी
अंग्रेजी की बोतल
या मटके की चखाई
टूटी-फूटी झोपड़ी
महल की सभाई
और वह कर चला
फिर अपनी विदाई
और वह कर चला
अपनी विदाई
सँग न साथी रहा
रही नहीं अब माई
भाई या बहिन रही
नाहीं रही सँग लुगाई
कहती है अब ‘मधुबाला’
छोड़ दो सब मधुशाला
जी रहे कैसा यह जीवन
जो अब बन गयी है ज्वाला”
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डॉ मधुबाला सिन्हा
मोतिहारी,पूर्वी चंपारण